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केवल असम के नहीं थे भूपेन दा

भाव संसार
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ब्रह्मपुत्र के विस्तार को प्रतिबिंबित करती एक बुलंद आवाज शनिवार को खामोश हो गई। यह आवाज असम में जरूर पैदा हुई थी लेकिन इसकी गूंज पूरे भारत में सुनी जा सकती है। बहुआयामी प्रतिभा के धनी डॉ. भूपेन हजारिका का देहांत वस्तुत: एक युग का अवसान है। हिंदी भाषी संसार के साथ उनका जितना आत्मीय और संजीदा परिचय कल्पना लाजमी की फिल्म ‘रूदाली’ के माध्यम से हुआ उतना पहले नहीं था। उससे पहले भी उन्होंने असमी व अन्य भाषाओं में खूब लिखा, गाया और परदे पर उतारा।

बेहतर सिनेमा के प्रति उनके प्रयास और आग्रह अंत तक मजबूत रहे। यह डॉ. भूपेन हजारिका जैसे प्रतिबद्ध कलाकार के कारण ही संभव है कि मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी के दौर में भी उनके सृजन का अपना एक प्रतिबद्ध श्रोता और दर्शकवर्ग है। जिसने दस साल की उम्र में पहला गीत लिखा और गाया हो, वह कालांतर में कला में किस उत्कृष्टता को छूएगा, इसके संकेत तो दिख रहे थे लेकिन भरोसा संभवत: उन्हें भी नहीं था। वह सही अथरें में देश को कला और संगीत माध्यमों से जोडऩे का काम कर गए हैं। ‘एक कली दो पत्तियां’ में चाय के बागान में श्रमरत लोगों के प्रति उनका अनुराग सहज ही झलकता है तो मछुआरों की पीड़ा को उन्होंने ऐसे स्वर दिए कि उनके साथ पंजाब और सुदूर उत्तर के राज्यों के संवेदना संपन्न लोग भी गुनगुना उठे। किसी ने नहीं पूछा कि यह गीत कहां का है। उन्होंने बस गुनगुनाया। पालकी उठाने वालों यानी कहारों के दर्द को उजागर करने वली उसी परिवेश की टेक..हैया न..हैया न अब भी श्रमशील लोगों के मुंह में सांस की तरह आती जाती है।

सच्चा कलाकार वही होता है जो जनता के मर्म के साथ जुड़े और संवेदनाओं को छूए। आइटम गीत सुनाना दर्द निवारक गोली देना है जबकि किसी के एहसास जगाना और उसकी रूह तक पहुंचना दूसरी बात है। भूपेन दा रूह तक उतरते थे। दिल हूम हूम कर रहा है लेकिन पानी की बूंद बरसने के बजाय पलकों पर आ ठिठकी है। उन्‍हें नमन।

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