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चूंकि केवल हंगामा खड़ा करना मकसद नहीं था, सूरत बदलने की बात थी…इसलिए सूरत बदलने की सूरत निकली जब अन्ना हजारे के रूप में कोई आदर्श पूरे समाज को मिला और हजारे को हजारों हाथ मिले। यह संभवत: अब तक का सबसे बड़ा जनउद्वेलन था जिसने सरकार को सही राह दिखाई।
बहुत कुछ बचे होने का संदेश मिला जब एक बुजुर्ग गांधीवादी का उपवास पूरे देश को आंदोलित कर गया। यह अन्ना के जंतर-मंतर का ही असर था कि सभी धर्मों के प्रतिनिधि देश के लिए महत्वपूर्ण और समय की मांग बन चुकी मांग के साथ थे। यह कोई राजनीतिक रैली भी नहीं थी कि जिसमें लोग बसें भेज कर बुलवाए गए हों। यह तो एक साझा दर्द के खिलाफ आक्रोश था जो सबको एक सूत्र में पिरो गया। फैज साहब ने कहा है, कड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल गरीब सही, तुम्हारे नाम पे आएंगे गमगुसार चले…। यह दर्द के रिश्ते का कमाल था कि जनजातीय जिले किन्नौर से लेकर कन्याकुमारी तक अन्ना ने उस जुमले की हवा निकाल दी जिसमें अक्सर बुद्धिजीवी आदर्शविहीनता की शिकायत करते थे। आदर्शों की मृत्यु की घोषणा करने वाले भी जान गए होंगे कि बुनियाद के साथ जन अभी तक खड़ा है।
आज प्रिय कवि धूमिल सशरीर भी होते तो उत्तर प्रदेश के खेवली में दशकों बाद अपनी कविता में उठे सवाल को जवाब में बदलता देख रहे होते..
आजादी केवल तीन
थके हुए रंगों का नाम नहीं है
जिन्हें बीच का एक
पहिया सा ढोता है,
इसका खास मतलब होता है…।
और वही मतलब समझाने के लिए अन्ना का हार्दिक धन्यवाद।
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