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एक ऐसे दौर में जब अपने मूल स्थान यानी जड़ों को छोड़ कर अन्यत्र के हो जाने का चलन बढ़ रहा हो, एक कलाकार का साठ साल बाद भारत लौटना बहुत सुकून देता है। जिस कलाकार की एक पेटिंग 16.42 करोड़ में नीलाम होती हो, वह चाहता तो जीवन की शाम पेरिस या अन्य किसी शहर की रंगीन शामों में भी जज्ब कर सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। जो जड़ों तक नहीं लौटते उनकी भी मजबूरी रहती होगी लेकिन जो लौट आते हैं, वे इस दौर में ध्यान खींचते ही हैं। सैयद हैदर रजा ऐसे कलाकार हैं जिनकी जड़ें मध्यप्रदेश के मंडला में हैं और गीता प्रवचन एवं रामायण पढऩा जिनकी जीवन शैली में भी शुमार है।
फ्रांस में कई सम्मान पा चुके और भारत में पदम श्री एवं पदम भूषण हासिल कर चुके रजा का जीवन जैसे बिंदु से ही सिंधु बना हो। 1922 में जन्मे रजा को 1970 में जब यह लगा कि वह लगातार अपने कागजी या उथले काम से नाखुश और बेचैन रहने लगे हैं तो उन्हें उसी बिंदु ने सहारा दिया जो उनकी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान उनके अध्यापक ने उन्हें बताया था। एकाग्रचित न हो पाने के कारण उन्हें सलाह दी गई थी कि वह एक डॉट यानी बिंदु पर अपना ध्यान केंद्रित करें।
अब इसे बिंदु कह लें या उनकी पूरी चेतना का केंद्र लेकिन यही बिंदु आज सिंधु बन चुका है। बाद में इसी बिंदु के साथ त्रिभुज भी आ मिली यानी और नए आयाम जुड़े। यही कारण है कि बाद के वर्षों में उनकी कृतियों में भारतीय आध्यात्मिकता से संबंधित भी कई आयाम जुड़े। 89 वर्ष की आयु में उनकी चाह का केंद्र वही भारत बना है जहां के वह हैं। यानी जड़ों ने उन्हें बुला लिया। अच्छा ही हुआ बुला लिया और उन्होंने यह पुकार सुन ली वरना लोग ऐसे भी होते हैं जैसा किसी शायर ने कहा है :
खूब गए परदेस कि अपने दीवार-ओ-दर भूल गए
शीश महल ने ऐसा घेरा मिट्टी के घर भूल गए
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