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कई दिन से एक असल ‘इडियट’ की तलाश कमाल खान ने पूरी की है। एक टीवी चैनल में भारत की जनता ने हाल ही में उसे गायकी का नायक बनाया है। जैसा कि एक विज्ञापन भी कहता है कि बच्चे आजकल नौकरी नहीं, पैशन ढूंढ़ते हैं…तो पटियाला के कमाल खान को पता था कि उसका पैशन यानी जुनून क्या है। सूफी और शास्त्रीय गायन में उसके गले की हरकतें और मुर्कियां स्वयं ही तय कर देती हैं कि उसे क्या बनना था। मजे की बात यह है कि ईमानदार आत्मविश्लेषण यह बताने में समर्थ होता है कि आदमी को जीते जी जान जाए कि उसे अंतत: करना क्या है या क्या करना चाहिए।
वास्तव में भारत भर में कई कमाल खान हैं जो सामने नहीं आ पाते। क्योंकि एक तो उन्हें अवसर नहीं मिलते और दूसरी बात यह है कि अवसर मिले भी तो अलिखित सामाजिक नियमावली एवं नौकरी कर कुछ कमाने के दबाव इतने रहते हैं कि वे यही भूल जाते हैं कि वह असल में क्या बन सकते हैं।
पंजाबी के प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय शिव कुमार बटालवी महज पटवारी ही रह जाते अगर कलम से कमाल करने को अपना कर्म नहीं मानते। जुनून के साथ बस एक ही मांग होती है कि आदमी लक्ष्य में डूब ही जाए। यानी लक्ष्य के प्रति मोहब्बत हो जाए।
प्रसिद्ध उर्दू कवि स्वर्गीय फैज अहमद फैज ने भी कहा था :
वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया, कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया…।
फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ की संदर्भावली में वर्णित ऐसे ‘इडियट्स’ की समाज को जरूरत है। सेहत के लिए, मानसिक स्वास्थ्य के लिए। कोई कुछ भी कहे, यह दौर केवल ‘पढ़ लिख कर’ ‘नवाब’ बनने वालों का ही नहीं, अपने जुनून और अंतदृष्टि से इश्क कर समाज को रोशन करने वालों का भी है।
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