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सचिन तेंदुलकर भारत के डॉन ब्रैडमैन हैं….
महाकवि कालिदास भारत के शेक्सपीयर हैं…
रॉबर्ट फ्रास्ट अमेरिका के विलियम वडर्सवर्थ हैं…जब मनुष्य तुलना करने की लत का शिकार हो जाता है तो इसी प्रकार की अनर्गल तुलना करता है। सिने महापुरुष अमिताभ बच्चन की बात सौ फीसदी सही है कि सचिन तेंदुलकर की तुलना सॅर डॉन ब्रैडमैन से नहीं की जानी चाहिए… क्यों कि तुलना हमेशा ही अजीब होती हैं।
कालिदास कब किस देशकाल में पैदा हुए और उन्होंने जो भी लिखा वह शेक्सपीयर के देशकाल और उनके नाटकों (सुखांतक और दुखांतक) एवं कविताओं से किस प्रकार मेल खाता है? कालिदास और शेक्सपीयर की तुलना का ण्क भावानुवाद यह भी निकलता है मानो कोई यह कहे, ‘यह पिता तो अपने पुत्र जैसे ही हैं।’ जाहिर है, इसमें पिता और पुत्र दोनों असहज होंगे।
विलियम वडर्सवर्थ डैफोडिल्स को देख कर कहते हैं कि दिल करता है मैं इन्हीं में रम जाऊं लेकिन रॉबर्ट फ्रास्ट कहते हैं, ‘मुझे सोने से पहले मीलों चलना है’ दोनों में क्या साम्य हुआ?
वास्तव में तुलना करने में एक नहीं, दोनों व्यक्तियों के साथ अन्याय हो जाता है। शोध इस पर भी होना चाहिए कि कालिदास और शेक्सपीयर की तुलना ऐसे लोग भी तो नहीं करते हैं जिन्होंने न कालिदास की एक भी रचना पढ़ी होती है और न शेक्सपीयर की? तुलना करके हम क्या साबित करना चाहते हैं, यह विचित्र ग्रंथी संभवत: हमें यह बताती है कि जब तक हममें अपनी श्रेष्ठता का प्रमाण दूसरों (पश्चिम) से लेने की आदत बनी रहेगी, तब तक हम ऐसी तुलना करते रहेंगे। योग जब तक ‘योग’ था, जनता में योग उत्पन्न नहीं कर सका, लेकिन उसके ‘योगा’ होते ही सब इसके मुरीद हो गए। ऐसा ही आयुर्वेद के साथ भी हुआ। यह भी सच है कि भारत का हर पक्ष श्रेष्ठ नहीं है लेकिन जो है उसे भी पश्चिम से सत्यापित होने की जरूरत क्यों रहे?
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