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जिस प्रकार अजय देवगन को एक फिल्म में बच्चों की खुशी के लिए कार्टून जगत में ही सही, नायक बनना पड़ रहा है उसी प्रकार जीवन में भी हर माता-पिता यही चाहता है कि वह बच्चों की खुशी के लिए जो संभव हो, कर दिखाए। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि बच्चों का भविष्य संवारने के तरीके कहीं दबाव ही तो नहीं देने लगते हैं। पढऩे में अच्छा खासा एक बालक हाल ही में राजधानी से भाग कर देश की राजधानी तक पहुंच गया और ढाबे में बर्तन साफ करने लगा। इस वास्तविक घटना का दुखांत यह है कि वह इसके बावजूद खुश था। अभाव नहीं, भावों का अभाव सारा अभाव उत्पन्न करता है।
ऐसा तब होता है जब बच्चों की अभिरुचि का ख्याल किए बगैर उस पर हमेशा अव्वल आने का दबाव बनाया जाता है। देश की आधी समस्याओं का कारण इस प्रकार के माता-पिता भी हैं जो बच्चों को जबरदस्ती वही बनाते हैं जो वे बनना नहीं चाहते। जो अच्छा अध्यापक हो सकता है, वह बेचारा इंजीनियर बन कर स्वयं को और समाज, सरकार को भी धोखा दे रहा होता है। जिसे अच्छा पुलिस अधिकारी होना चाहिए, वह गले में स्टेथोस्कोप लटका कर लैब कोट में घुटता रहता है। इस सब में भौतिक प्राप्ति भले ही हो, लेकिन कहीं न कहीं जो शून्य व्यक्तित्व में पसर जाता है, वह सालता रहता है और दिखाई भी देता है।
विरोधाभास तब आते हैं जब नई पीढ़ी को सहेजने और संभालने में हल्की सी चूक भी भारी पडऩे लगती है। इस संसार में आने वाला हर व्यक्ति अपने साथ कुछ स्थाई संस्कार लेकर भी आता है लेकिन उननकी सुनी नहीं जाती। जिनकी सुन ली जाती है वे डा. एपीजे अब्दुल कलाम, तबला वादक जाकिर हुसैन, संतूर वादक शिव कुमार शर्मा या बासुंरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया बनते हैं और बाकी भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। इसके बरक्स ऐसे घर अब भी होते हैं जिनमें अपसी संवाद नाम की कोई चीज नहीं होती।
वास्तव में नई पीढ़ी के मनोवैज्ञानिक ढंग से व्यवहार किए बगैर सुपरिणामों की आशा करना व्यर्थ है। इस प्रतियोगी युग ने अकारण ही ‘खेल-खेल में स्कूल’ की अवधारणा पर जोर नहीं दिया है। यह समय समाज के लिए रटने-रटाने की परंपरा का निर्वहन करने वाले ‘तोतारामों’ को रचने का नहीं, संपूर्ण व्यक्तित्व बनाने का है। जहां किसी बालक-बालिका की योग्यता का सारा मानक उसके अंक हो जाएंगे तो नई पौध मुर्झा जाएगी। फिर हमारे हाथ में सिवा कागजी फूलों के और कुछ नहीं आएगा।
किसी ने कहा भी है :
जिन किताबों से न मिल पाएं तुझे रिज्क-ओ-सुकूं
उन किताबों को ही तू अपना सहारा न समझ
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