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यह अंदर वालों को पता नहीं क्या हो जाता है, बाहर की ओर दौड़ते हैं। जबकि पता है कि बाहर सिवा जलालत के और कुछ नहीं मिलने वाला। अपराध हो, हादसे हों, हमले हों…बाहर वाले अपराधी करार दे दिए जाते हैं। पता नहीं यह कौन से तंत्र से पता चलता है कि बस…ये बाहर वाले ही हैं जो दूध के धुले नहीं हैं। आयु के तमाम हरे वर्ष देकर बाहर के जो लोग अंदर को हरा-भरा बनाते हैं, उनके हिस्से में यही तोहमत आनी हो तो इसे जिम्मेदार लोगों के गैर जिम्मेदाराना रवैये की पराकाष्ठा माना जाना चाहिए। केंद्रीय गृहमंत्री का यह बयान पूरे देश को अपना समझने वालों के जज्बे पर चोट ही तो है। हालांकि भारी विरोध के बाद उन्होंने इसे वापस भी ले लिया है लेकिन जो क्षति होनी थी, वह तो हो ही गई है। यह भी सच है कि ऐसा कहने वाले वे पहले राजनेता नहीं है और जैसी आशंका है, अंतिम भी नहीं होंगे।
तो बाहर वालों का जलवा यह है कि हिमाचल प्रदेश में यदि कुछ बिहार, उत्तरप्रदेश और राजस्थान न रहता अाया होता तो तो लोगों के मकान, सड़कें और पुल आदि न बनते। कोई कारण है कि बिहार में स्थायित्व और सुशासन के प्रति जनादेश आते ही पंजाब चिंतित हो उठता है। क्यों कि उसे लोग नहीं मिलेंगे जो काम की संस्कृति जानते हैं। अंदर वाले इतने ही सर्वगुणसंपन्न हैं तो उन्हें बाहर वालों की जरूरत क्यों पड़ती है? स्वयं बुद्धिजीवी दक्षिण से संबंध रखने वाले केंद्रीय गृह मंत्री का यह दिल्ली में सामाजिक अराजकता पर बयान कि समस्या बाहर वाले उत्पन्न कर रहे हैं, गले से नीचे नहीं उतरता। दिल्ली को संवारने में बाहर वालों का कितना योगदान है, क्या यह कोई रहस्य है?
दुख यह भी है कि बाहर वाला कितना भी सुसंस्कृत, सभ्य और शालीन क्यों न हो, वह बेचारा ‘बाहर वाला’ ही रहता है। जो लोग पाकिस्तान बनने पर रक्तरंजित रावी में से लाशें हटाते हुए भारत पहुंचे और हिमाचल प्रदेश में बस गए, कितना त्रासद है कि वे आज भी हिमाचल के लिए पंजाबी या बाहर वाले ही हैं। मुंबई पर केवल वहीं के लोगों का अधिकार हो, इस बात का कितना विरोध हुआ था, यह सब जानते हैं।
त्रासदी यही है कि हर राज्य में कुछ अंदर वाले होते हैं और कुछ बाहर वाले, फिर यह महीन सी रेखा जिलों तक उतरती है और उसके बाद कस्बों और पंचायतों तक और अंतत: मोहल्लों तक पसर जाती है। कोई इस रेखा के खिलाफ नहीं उठता। अब गृहमंत्री जी ने जो भी कहा उसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि दिल्ली दिल्ली वालों की है, बाहर वालों की नहीं। देश की राजधानी पूरे देश के लोगों के लिए क्यों नहीं हो सकती। हर कोई किसी न किसी कारण दिल्ली में है। कोई छोटे तो कोई बड़े काम से। जैसे कोई मंत्री, नेता, अफसर, और कोई किसी और काम से दिल्ली में है, अकारण नहीं है, यानी दिल्ली उसकी कर्मस्थली है, तो यह भी पता चले कि बाहर वाला कौन है और अंदर वाला कौन। काश कोई बता पाता कि देश में अंदर और बाहर के बीच की रेखा को कौन लोग क्यों और किस स्याही से खींचते हैं।
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