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इनसान हाजिर हो

भाव संसार
भाव संसार
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इस समय की सबसे बड़ी त्रासदी आदमी का गुमशुदा हो जाना है। देश की राजधानी का महिलाओं के लिए सुरक्षित न रह जाना तो मानव के दानवीकरण का सत्‍यापन है ही, आचार-व्यवहार में आदमी यानी इनसान  का  गायब होना भी ऐसी त्रासदी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। बहुत से काम ऐसे हैं जिन्‍हें इनसान नहीं कर सकता क्‍योंकि इनसानियत इजाजत नहीं देती। 

 बसों में जितने भी लोग बैठते हैं सबकी मनोदशा अलग-अलग होती है लेकिन किसी एक के मोबाइल फोन पर जोर-जोर से गीत बज रहे होते हैं जिसे मुफ्त और जबरदस्ती सबके कानों ही नहीं, रूह तक उतारने का प्रयास होता है। वृद्धाओं और गोद में बच्चा उठाए जो महिला बस में घुसती है, उसे भी कोई जवान सीट नहीं देता। आनंद और क्षोभ में बहुत महीन सी रेखा है जिसे आदमी ने इतनी मोटी बना लिया है कि कोई अंतर नहीं आता।

राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे करोड़ों खर्च कर मैरिज पैलेस बनाए जाते हैं और सैकड़ों गाडिय़ां अपनी-अपनी हनक में खड़ी रहती हैं। अब चाहे सेना के वाहन रुक जाएं या फिर एंबुलेंस में जीवन के लिए दौड़ रहा मरीज रुक जाए, किसी को क्या अंतर पड़ रहा है। सूचना और प्रौद्योगिकी ने बहुत तरक्की कर ली, सब कुछ सहज होता प्रतीत हो रहा हो लेकिन सभ्‍यता और संवेदना की गुमशुदगी कहीं दर्ज नहीं हो रही है। गाड़ी चलाते हुए पहियों पर गुस्से का गुबार इतना सघन होता है कि रहम या सभ्य आचार के लिए कोई स्थान नहीं। संकरे पुल को दो अलग-अलग बकरियों के अपने-अपने ढंग से पार करने की नीति कथाएं अब रद्दी हो चुकी हैं।

एक बेरहम सी दौड़ है जिसका अंत कहीं नहीं दिख रहा। आदमी रहे तो संभवत: सब कुछ रहेगा लेकिन यह आदमी के न होने का ही परिणाम है कि पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है और मानसिक प्रदूषण और बढ़ रहा है। बहुत पहले हिमाचल के लोकगीत सुनते हुए अच्छा लगता था लेकिन अब यहां भी आलम यह है कि ‘नीरू चाली घुमदी, चाली शिमले बाजारा’ का तुक ‘हाल क्या है तुम्हारा’ के साथ जोड़ा जाता है। एक सरकारी एफएम रेडियो पर उद्घोषक पूछता है, ‘आपको कौन सा गीत सुनने का शोक है?’ क्या बताएं शौक तो खत्म नहीं हुआ लेकिन शोक जरूर होता है। दुख तब भी होता है जब फरमाइशी पत्र पढ़ते हुए उद्घोषक कहता है, ‘यह गीत सुनने की ख्वाहिशमंद की है फलां जी ने..’ख्वाहिश तो की होगी लेकिन उसे ‘मंद’  करके हम एक बार फिर आदमी के गायब होने को तसदीक ही तो कर रहे हैं। ऐसी बहुत सी जगहें हैं जहां आदमी नहीं है…जंगलों में कटते पेड़ों, बस अड्डों पर हिंदी के टूटे हुए शब्‍दों, बलात्‍कारी बनते शिक्षको, लगातार सूखते जल स्रोतों, कत्ल के रोजनामचों, सरकारी सीटों पर ड्यूटी बजाते चश्मों….शायद बहुत जगहों पर… आदमी गैरहाजिर है।  काश, समय अदालत के बाहर कोई आवाज दे, ‘ आदमी हाजिर हो’

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