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जीवन के पक्ष में

भाव संसार
भाव संसार
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जब जीने का सारा उत्‍साह समाप्‍त हो जाए और मृत्‍यु ही एकमात्र हल दिखने लगे, तब चेत जाना चाहिए कि ऐसे में न केवल जीवन को ही खतरा है बल्कि उम्‍मीद के वे सारे संसार भी खतरे में हैं जो अन्‍यथा नवरचना कर सकते हैं। अंधकार के बादलों को इच्‍छाशक्ति की धूप से चीरा जा सकता है। स्‍वाभाविक रूप से आई मौत ही कितना दुख देकर जाती है तो यूं जीवन से हार कर उससे किनारा कर लेना परिजनों को कितना सालता होगा, यह वही बता सकते हैं। सच यही है कि सबसे अधिक धार्मिक वे लोग हैं जो जीवन का इसकी तमाम विसंगतियों और विद्रूप के बावजूद आदर करते हैं। जो हर धूप-छांव के बावजूद इससे प्‍यार करते हैं। जिन्‍हें जीवन का आदर करना नहीं आता, वे भगवान या उसकी बनाई कृतियों को भी सम्‍मान नहीं दे सकते हैं।

मंडी शहर से सटे एक गांव कोटली में वह घोर निराशा का क्षण रहा होगा जब एक महिला ने पहले अपने ग्‍यारह वर्षीय बच्‍चे को जहर दिया और बाद में स्‍वयं भी जीवन से किनारा कर गई। ‘ बेचारी दुखी थी’, ‘चलो ऐसा ही लिखा था’, ‘ कोई दुख रहा होगा’, ‘ काश उसने अपने मन की बात किसी को बताई होती’ ये और इस प्रकार की तमाम बातें सामाजिक वातावरण में अब तक गूंज रही होंगी लेकिन यह तो सांप निकलने के बाद लकीर को पीटना ही हुआ। हिमाचल प्रदेश में बीते कुछ वर्षों से आत्‍महत्‍या करने वालों ने जान दे देने को इतनी सरल और सामान्‍य घटना बना दिया है कि हर तीसरे दिन एक आत्‍महत्‍या अवश्‍य एसपी के अपराध रोजनामचे में दर्ज हो जाती है। कुछ नहीं भी हो पाती हैं।

जीवन के प्रति इतनी घृणा, हिंसा, द्वेष और उससे इतना भय कि कोई सलफॉस निगल लेता है, कोई ढांक से छलांग लगाता है और कुछ रेल पटरियों पर कटते हैं। ऐसे में मनुष्‍य को भगवान की सबसे सुंदर रचना बताने वाली उक्तियां हार रही हैं। जब कोई मां अपने दूध पीते बच्‍चे को जहर देकर मार दे और बाद में स्‍वयं भी उसी पदार्थ का सेवन कर मर जाए तो इसे क्‍या कहेंगे। चूज़ी या सेलेक्टिव होना अच्‍छा है लेकिन यह भी देखा जाए कि हम चुन क्‍या रहे हैं। कोई स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति ही यह अधिकार पा सकता है कि वह हमेशा सही को चुने। लेकिन जहां अवसाद की इमारत हो, हत्‍यारे मन के रूप में व्‍यक्ति स्‍वयं ही वकील और स्‍वयं ही फैसला करने वाला हो वहां वह स्‍वयं को मृत्‍युदंड ही तो देगा। जिनकी प्रवृत्ति आत्‍महंता है, वे अपना क्‍या फैसला कर सकते हैं, यह कोई रहस्‍य नहीं होना चाहिए।

…जो लोग मानसिक रूप से कमजोर हैं, जिनके पास भावनात्‍मक परिपक्‍वता नहीं है, उन्‍हें अपने जीवन का फैसला नहीं करने दिया जाना चाहिए। उनके लिए मदद को हाथ उठने चाहिए और ये हाथ बहुत अधिक होने चाहिए। जीवन को हम ही जब आकार नहीं दे पाएंगे तो कौन देगा। काश,  जीने की बात ही सबसे महत्‍वपूर्ण हो!

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