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चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना…..
वे बड़े मासूम और हर बात पर उदास होने के खतरों से भरे दिन थे जब रेडियो पर यह गाना जनाब मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज में सुनाई देता था। दिल में हूक सी उठती थी…दिल में कुछ कम होता प्रतीत होता था। साफ़ लगता था कि पंछी उदास है…इसे कोई ग़म है…।
…आज इतने सालों बाद समझ में आता है कि पंछी को वास्तव में दुख क्या है। आज देश ही नहीं परिवेश भी बेगाना हो गया है। नन्ही सी जान…पंख पसार कर कहीं भी पहुंच जाओ…जैसा कहा भी है, कोई सरहद न इन्हें रोके। अतिरेक में आकर हम भले ही कहें, ‘सोचो मैंने और तुमने क्या पाया, इंसां होकर’ लेकिन पंछी इंसान की ही अदूरदर्शिता और स्वार्थ के शिकार जरूर हो गए।
तभी तो लगता है :
कई परिंदे लौट न पाए आज भी अपने नीड़ों को
बरगद की टहनी की बातें सुन सुन कर मुर्झाई शाम…
अब न शाम मुर्झाती है और न दिन कुम्हलाता है।
चावलों के चंद दाने भी अब चिडिय़ों को नहीं बुला पाते। यह संभवत: अपने बाहर और भीतर के शोर का ही परिणाम है कि पक्षियों का कम होता जाना कहीं दर्ज नहीं हो रहा है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी में क्रांति का युग है, ज्ञान के कई स्रोत स्वयं बंट जाने को आतुर हैं लेकिन यह कहीं दर्ज नहीं हो पाया कि पक्षियों के लिए भी एक राष्ट्रीय दिवस है। देश में 1250 में से कुल कितनी रह गईं, गिद्घों का क्या हुआ, चिडिय़ा क्यों अकेली और उदास है, कौवे अब श्राद्ध का ग्रास लेने क्यों नहीं आते या फिर पौंग झील में आने वाले सर्दी के मेहमानों की सुरक्षा कैसे हो रही है, कैसे होगी…इन सवालों के लिए समय होता तो कहीं कुछ दर्ज भी होता।
लेकिन जहां रोज हादसों में लोग मर रहे हों, रोज कहीं न कहीं कोई शव मिलता हो, वहां पक्षियों की गमुशुदगी कैसे दर्ज होगी। इससे आगे न सोचना ही वास्तव में सबसे बड़ी भूल है। राज्य पक्षी बना कर अगर किसी के पंख महफ़ूज़ रह सकें तो अच्छा है…तुमने ईसा बना दिया मुझको, अब शिकायत भी की नहीं जाती। प्रदूषित हो रहे पर्यावरण का खामियाजा पक्षियों को भुगतना पड़ रहा है। जंगल कटना, जलस्रोतों का सिकुडऩा, जानवरों का शहरों की ओर भागना और पक्षियों का विलुप्त होना अनियोजित और कुतर्कपूर्ण जीवन शैली का ही परिणाम तो है। जैसे कागज व्यर्थ करने वाले पेड़ पर चलती आरी के बारे में नहीं सोच पाते उसी तरह मोबाइल फोन पर बात करने वाले लोग टावर और पंछी का रिश्ता नहीं समझ पाते। गिद्ध हों या दूसरे पक्षी जो मनुष्य को बेहतर वातावरण देने में मदद करते हैं, यदि वही विलुप्त हो रहे हैं तो इसमें मनुष्य का धीरे-धीरे ही सही गायब होना दर्ज हो रहा है लेकिन दुर्भाग्यवश उसे कोई पढ़ नहीं पा रहा है। जो इसे जानते हैं वे इसके लिए प्रयास भी कर रहे हैं। यही समय है कि हम पक्षियों के गायब होने को गैर जरूरी न मान कर ऐसा वातावरण बनाने में सहायक हों जिसमें सभी जीव जंतु जी सकें। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का मंत्र इस समय मनुष्य को सीखना ही होगा।
मानवता ने जितना खो दिया है, उसे तो लौटाया नहीं जा सकता लेकिन वर्तमान को संभाल लें तो भविष्य नाराज नहीं होगा।
क़तील शिफ़ाई साहब ने एक शे’र लिखा था
अभी तलक जो खामोशी में डालते हैं ख़लल
दरख़्त से वो परिंदे उड़ा दिए जाएं
पर यह हमने क्या किया…हमने उन्हें उड़ाया नहीं, उन्हें देस निकाला ही दे दिया। काश पंछी जानते होते कि अब बहेलियों का परिवार और तरीका सब कुछ बदल गया है…अब वे जाल नहीं फैलाते, चुपचाप अपना काम कर जाते हैं।
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