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आओ चल कर देखें

भाव संसार
भाव संसार
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तो सिकुड़ी हुई सड़कों और नालों तक पसरी बहुमंजिला इमारतों वाले शिमला को चलने का संदेश एक गैर सरकारी संस्था ने दे दिया है। जोर पैदल चलने पर है और पैदल चलना हर प्रकार से मुफीद है। कितने लोगों को याद है कि पिछली बार हाथों से अपने पैर कितनी मुश्किल से छूए थे। चलना न केवल सेहत के लिए आवश्यक है बल्कि उस सामाजिकता के लिए भी आवश्यक है जो अब दोपहिए की हवा या अन्य वाहनों की रफ्तार में पीछे छूट रही है। कुशलक्षेम की बात छोडि़ए, एक भरापूरा संवाद ही गुम हो रहा है। उचित भाषा को परिवेश से गायब करने का उपक्रम इसी ‘तेजरफ्तार’ युग में गुम हुआ है। अब यह भीतर के खालीपन का ही परिणाम है कि आदमी अब सुई के गिरने की आवाज से चौंक जाता है :

सुई के गिरने की आहट से चौक उठते हैं

गिरफ्त-ए-खौफ में खाली मकां हैं सब के सब

या फिर शोर इतना है कि दूसरे की आवाज सुनाई ही नहीं देती। शारीरिक गतिविधि इतनी कम हो गई है कि उसका प्रभाव मनोस्थिति पर भी पड़ रहा है। कोई कारण है कि अब शरीर जड़ हो रहे हैं और तनाव एवं अवसाद जैसी व्याधियां आम हो रही हैं। शरीर को होने वाले नुकसान का ब्योरा इतना ही लेकिन यह भी देखें कि पर्यावरण को कितना नुकसान वाहनों से हो रहा है। जाहिर है कोई भी व्यक्ति लंबी दूरी तक पैदल नहीं चल सकता और उसे चलना भी नहीं चाहिए क्योंकि समय प्रबंधन भी कोई पक्ष है लेकिन चार कदम जाने के लिए भी वाहन की जरूरत महसूस की जाए तो कोई भी अनुमान कर सकता है कि कितना ईंधन खर्च हुआ और पर्यावरण को कितनी क्षति पहुंची। कई बार यही समयाभाव या तेज रफ्तार आदमी को आदमी के खिलाफ करने की प्रमुख वजह भी लगती है। तभी जैसे मन कह उठता है :

आदमी को आदमी के दूर जिसने कर दिया

 ऐसा साजिश के लिए हर बद्दुआ लिखते हैं हम

यही कारण है कि अब आदमी का आदमी के साथ व्यवहार कुछ ऐसा हो चला है जिसे देश के एक दिग्गज कवि (मुझे नाम के सही होने पर संदेह है इसलिए लिख नहीं रहा) के शब्दों में बयान किया जा सकता है –

ड्राइंग रूम में वह नहीं आया

सिर्फ उसके चमचमाते जूते आए

जब मिलाया उसने हाथ मुलाकात रह गई दस्तानों तक

कफों ने पकड़ा काफी का कप

टाई और कॉलर ने नाश्ता किया

उसके होंठ नहीं हंसे बिलकुल

सिर्फ उसकी सिगरेट चमकी

और विदा की जगह हिलता रहा रूमाल…

हिमाचल प्रदेश में जब निजी वाहनों की भरमार नहीं थी तो सामाजिक व स्वास्थ्य की दृष्टि से ही नहीं, पर्यावरण की नजर से भी मंजर अच्छा था लेकिन अब जंगल से गुजरती सड़क के दोनों ओर पीली पड़ी हरी पत्तियां कुछ तो कहती ही हैं। यह प्रयास एक गैर सरकारी संस्था ने किया है जिसके जज्बे और उत्साह का संक्रमण अन्य स्थानों की संस्थाओं और अंतत:  जनता तक जाना चाहिए।

कहीं से कोई छोटी सी पहल कभी बड़ा उदाहरण भी बन सकती है। सेहत और सामाजिकता से पैदल हो जाने की तुलना में पैदल चल कर दोनों को बचा लेना श्रेयस्कर ही होगा। ये उम्मीद करना बेमानी नहीं है कि यह जज्बा बना रहेगा और कहीं न कहीं यह संदेश व्यापक बनेगा ताकि इसका लाभ सभी ले सकें। चलते रहने में कुछ लोग मिलेंगे, कुछ दोस्‍त मिलेंगे, जीवन नई राहें भी खोलेगा और ……पहले चल कर तो देखें…।

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