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सिरमौर के पहाड़ों की सबसे बड़ी गूंज और रेणुका झील की तरह किनारों में न बंधने वाली बड़ी कविता किंकरी देवी की मौत के बाद पैदा हुआ शून्य डरा रहा है। सामने चूड़धार की पहाडिय़ां दिखाई देती हैं। देवता शिरगुल के रंग में रंगी। इन्हीं की आगोश में कभी एक 12 वर्ष की मासूम शादी कर ससुराल आई होगी…इस बात से बेखबर कि चौके-चूल्हे में सुलगने और खेतों में मिट्टी होने के साथ-साथ उसे इन पहाड़ों को बचाने के लिए उनसे भी बड़ा पहाड़ बनना होगा।
यहां से कुछ मील की दूरी पर धिराइना गांव है…ग्रेट खली का गांव। अंडरटेकर का दुश्मन और पंजाब का पहचाना सपूत। बलिष्ठ खली यहां क्यों याद आया? संभवत: शरीर से कमजोर किंकरी के विलोम के रूप में लेकिन यह किंकरी देवी की अंदरूनी ताकत का ही कमाल है कि वह सशरीर उपस्थित न होते हुए भी हमें पर्यावरण संरक्षण का संदेश दे रही हैं।
जीते जी लोकोक्ति या संज्ञा से विशेषण बन जाना बहुत कम लोगों को नसीब होता है। इसके लिए रास्ता आम नहीं होता। यह रास्ता हम रॉबर्ट फ्रास्ट की कविता ‘रोड नाट टेकन’ में देखते हैं या फिर जावेद अख्तर की नज्म बेटी ‘ज़ोया के लिए’ में।
पहाड़ों को बचाने का रास्ता भी आसान कहां था। पहाड़ को देखकर खुश होना एक बात है लेकिन उस खुशी को बरकरार रखने के लिए खुद पहाड़ हो जाना दूसरी बात है।
यह कैसे संभव हुआ कि एक निपट देहाती औरत बिना किसी अमीर एनजीओ का सहारा लिए खनन माफिया के खिलाफ अदालत में पहुंच गई। क्या उसे घर की जरूरतों ने नहीं रोका होगा? क्या झाड़ू पोंछे और आंगन बुहारने में घर उससे अपेक्षा नहीं करता होगा? इन सभी सवालों का हल किंकरी देवी के जीवन की ओर देखकर मिल जाता है। अब यह सवाल है कि कितनों में किंकरी धड़कती हैं। कूहलों के ऊपर मकान की नींव हैं.. चाय बागानों की जड़ों में बहुमंजिला इमारतों का मट्ठा है…परंपरागत जल स्रोतों पर खतरनाक सच्चाई की तरह जमी काई है…लेकिन जनता का शिकायत बॉक्स चुप इसलिए है क्योंकि कसूरवार हर जगह शासन नहीं, लोग भी हैं।
हिमाचल प्रदेश में विकास अगर अपनी कीमत मांग रहा है तो क्या वह पर्यावरण को रहन रख दी जानी चाहिए? ऐसे में किंकरी की याद आंखों को सूखा छोड़ दे यह कैसे संभव है। टीकों और ग्लूकोज की सुइयों से बिंधे कमजोर बाजू और कलाइयां…जीवन की डोर से बंधे रहने की आस जैसे किंकरी की दृष्टि की तरह धुंधला रही हो। यह सब भुलाए नहीं भूलता। अंत समय में इलाज के लिए भटकना उनकी नियति कैसे बन गया? यह किसी के लिए भी शर्मनाक है कि किंकरी देवी के हक में मीडिया को ही आना पड़ा लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी।
हिमाचल प्रदेश को अपने सूरमाओं को भूलने और उन्हें पहचान न देने का असाध्य रोग आज से नहीं है। यह शिकायत केवल सरकार से हो, ऐसा नहीं…समाज को भी अपने गिरेबान तक झुकना चाहिए। खिलाडिय़ों से लेकर दूसरे कई क्षेत्रों तक जो भी हीरे यहां यहां नहीं चमक पाते, जब उन्हें दुनिया जानती है तो हिमाचली मानसिकता भी अपना दावा ठोंक देती है। किंकरी देवी के साथ भी ऐसा ही हुआ। हम उन्हें मेधा पाटकर तो कहते रहे लेकिन वह सिरमौर से आगे नहीं जा पाईं। चीन में हुए सम्मेलन में उन्हीं से दीप प्रज्वलन करवाया गया था लेकिन हैरत है कि किंकरी देवी को अपनी आखिरी हिचकी अंधेरे में नसीब हुई। किंकरी ने कभी कोई सम्मान नहीं चाहा था।
…शायद यही फर्क होता होगा जंगली कुकुरमुत्ते और आंगन में खिलते गुलाबों के बीच। किंकरी देवी ने जब हाईकोर्ट की सीढिय़ां उतरी होंगी, कितना दबाव रहा होगा ‘अम्मा’ के नाजुक कंधों पर। जब हर प्रकार से समर्थ माफिया दनदनाता होगा कितनी बार चूल्हे की आग बुझती होगी। क्या नहीं होता होगा जब फटाफट अंग्रेजी बोलने वालों ने उसे अपनी मुहिम वापस लेने के लिए धमकाया होगा। …लेकिन अंदर एक लावा सा था जो धड़कता रहा। बाहर भी आता रहा और नैतिक रूप से कमजोर लोग खूब सिंके होंगे। तभी तो किंकरी एक विजेता के रूप में सामने हैं।
….दरअसल संवेदना का विस्तार चाहिए। उन्हें लक्ष्मी बाई कहा जाता है तो कोई संदेह नहीं है। अब राज्य की सब खड्डें निचुड़ रही हैं। बावडिय़ों पर पत्थर के रूप में रह गए देवता अब झाडिय़ों में छुप गए हैं…रसोईघरों से उठती सड़ांध शयनकक्षों तक जा पह़ुंची है… सिंक बदबू दे रहे हैं क्योंकि निकास नहीं है…कैथारसिस नहीं है। कहीं कोई पीड़ा नहीं है। पंचायतों के पास अपार शक्तियां हैं, साक्षरता दर भी उत्साह बढ़ाती है लेकिन कोई आवाज नहीं उठती।
…अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां…
यही गांधीजी के तीन बंदरों वाले दर्शन की सुविधाजनक रूपांतरण है। किंकरी देवी का संघर्ष तब शुरू हृआ जब उन्होंने पाया कि उत्तराखंड के संसाधनसंपन्न लोगों ने सिरमौर में चूने के पहाड़ों को अपना निशाना बनाया है। इसी बात पर उन्होने ठान लिया कि अब कुछ भी करना है।
यह राहत की बात है कि मीडिया ने कर्तव्य समझते हुए किंकरी देवी के सहायतार्थ कोष भी आरंभ किया और हरसंभव तरीके से उनकी पीड़ा को सबकी पीड़ा बनाने का काम किया।
किंकरी अब भी जिंदा रह सकती हैं। जैसे विवेकानंद, भगत सिंह जैसे चेहरे अब भी कई धड़कनों में जीवित हैं। किंकरी को लोकगीत बनना है। लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक उनके क्रियाकलाप बच्चों को स्कूलों में न पढ़ाए जाएं। तीन तरफा यात्रा भत्ते ढूंढ़ती कविताओं के लिए सजे मंचों पर भी किंकरी को एक महत्वपूर्ण विषय बन उभरना चाहिए। आज के दौर में जब हम देश और समाज में आदर्श व्यक्तित्वों को गुमशुदा की तलाश वाली श्रेणी में रख रहे हैं, हमें दाएं-बाएं देखना होगा, कहीं कोई किंकरी देवी तो नहीं जिसे हम न देख-सुन पा रहे हों…किंकरी हैं लेकिन तब भी यह कहना ही होगा, ‘ किंकरी देवी, कृपया हमारे साथ रहिएगा’
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