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इस बरसात में उनकी बहुत चिंता रही। इसलिए नहीं कि वे कोई मकान या व्यक्ति थे….चिंता इसलिए थी क्योंकि एक विस्तृत कालखंड को तने से लेकर शाखाओं तक में सहेजने वाले कई पेड़ गिरे हैं। कई युगों के पहरेदार चले गए। जब बरसात सामान्य से 54 फीसदी अधिक हो तो स्वाभाविक है कि जमीन नम होनी थी । लेकिन इतनी नम हो गई कि जड़ें नंगी हो गईं। जड़ें नंगी होने पर पेड़ का ही नहीं, मनुष्य का भी क्या होता है, यह रहस्य नहीं है।
बस से अक्सर देखता रहा…मकानों पर, सड़कों पर और कभी वाहनों पर गिरते रहे बेचारे पेड़… जैसे मजबूरी में कह रहे हों, ‘हमें गिरना नहीं था पर विवश थे।’ गश खाए बुजुर्गों की तरह कहां गिरे कोई होश नहीं। कभी बिजली तो कभी टेलीफोन की तारों से झूलते रहे। वे केवल पेड़ ही होते हैं जिनका उखडऩा, गिरना या काटा जाना सब कुछ तकलीफ देता है।
राष्ट्रीय राजमार्ग 20 यानी पठानकोट-मंडी पर नूरपुर, शाहपुर, कांगड़ा, पालमपुर और बैजनाथ तक सड़क के दोनों ओर जो पेड़ थे उन्हें कभी पौधों के रूप में किन बुजुर्गों ने रोपा होगा, यह कोई किताब नहीं बताती। न कोई जिक्र न चर्चा। अनाम लोगों के महान काम।
पता भी कैसे चले? वे राजनेता या अधिकारी तो थे नहीं कि पट्टिका पर दिनांक, स्थान और रोपने वाले का ब्योरा रहता। सड़क किनारे के पेड़ पथ और पंथी को ही छाया देते लगते हैं। क्योंकि ऐसे दिखते भी हैं लेकिन वे पूरे परिवेश को बहुत कुछ देते हैं। वे हमारे हर खुशी, गम और हर क्षण के साक्षी और बहुत बार उसमें शरीक भी होते हैं। सुबह की धूप को पल भर में हर अलसाया हुआ पेड़ माथे पर बिठा लेता है। शाम को जब सूरज अपने जाने की टीस में लाल हुआ रहता है, तब पेड़ भी लाल ही दिखते हैं। कहीं-कहीं तो पेड़ कुछ इस प्रकार लगते थे जैसे कोई हरियाली बांटती सुरंग बन गई हो। सड़क की यह मुराद जैसे पुराने बुजुर्गों और प्रकृति ने दिल से सुनी थी कि
मैं अगर रास्ता बनूं हमदम
तुम किनारे का हर शजर होना।
कुछ आम के पेड़ हैं कुछ बरगद के। बरगद आदतन अपनी जड़ें फैलाते रहे और गुरुगंभीर मुद्रा में खड़े रहे। बड़े लोगों पर छोटी बातों का असर कम होता है इसलिए उनका सिर तभी हिलता था जब बहुत तेज हवाएं चलती थी। लेकिन आम के पेड़…बेचारे जरा सी बात पर सिहर उठने वाले…थोड़ी सी हवा चली कि ‘हूंम्म्म्म्म्म…’.गाने लगे। विनम्र इतने कि उनके नीचे कुछ वाहन पकी हुई रुत में अवश्य रुके हुए दिखते थे। कोई सिंदूरी, कोई पीला, कोई लाल आम…. पारदर्शिता इतनी कि रंग से ही पहचान लो, कौन कितना मीठा, कौन कुछ तीखी खटास देने वाला है। चूंकि पेड़ थे और कुछ देने आए थे इसलिए कोई नहीं तोड़ता था तब भी पेड़ कितने ही आम गिरा देता था जिसे खाने हैं खाओ, जिसे नहीं खाने हैं न खाओ, अपनी मर्जी, अपनी मौज..। उन्हें स्कूली बच्चों से भी कोई शिकायत नहीं थी जिनके पत्थर कई बार आम को न लग कर पेड़ को लगते। आम और बरगद के अलावा भी कई साथी जैसे ‘पज्जा’ यानी ‘वाइल्ड चेरी’ जिसके फूल मार्च में बहुत ही भला सफेद रंग दिखाकर वैसा ही वातावरण बनाते जैसा शायद कभी विलियम वर्ड्सवर्थ ने ‘डैफोडिल्स’ देख कर पाया होगा। और वो ‘ब्यूल’ जिसे मंजूर था कि उसकी लकडि़यां काट कर हफ्ताभर पानी में डाले रखो, बस मजबूत रस्सी बन जाएगी। एक बेचारी ‘ओई’ जिसकी लंबाई इतनी कि खजूर भी शरमा जाए। हां, उसका घास पशुओं को नहीं दिया जाता था…दूध सूख जाता है।
क्या भूलूं क्या याद करू…’जामुन’ कौन से कम थे। समलोटी गांव चूंकि राष्ट्रीय राजमार्ग पर पड़ता था इसलिए दो महीने के बरसात में होने वाले स्कूली अवकाश में वे बच्चे जामुन बेच कर जेबखर्च निकालते थे जिनके पिता शाम को देसी शराब की गंथ लिए सबको फटकारने पहुंच जाते थे। चीड़ के पेड़ बेचारे अपनी ही आग में झुलसने को मजबूर। तापमान 45 डिग्री से ऊपर गया तो समझो पत्तियां स्वयं जलने लगेंगी। अब चीड़ भी कम हो रहा है। उसके तने पर जख्म कर कई बार बिरोजा भी बेमौसम निकाला जाता है।
धर्मशाला और पालमपुर में सड़कों के किनारे होते थे देवदार। देवदार यानी वृक्षेंद्र। क्या बात है…कभी उनसे सचिवालय की कुर्सियां और दीगर फर्नीचर बना, कभी उनपर कीलें ठोंक कर ऐसी सूचनाएं भी शहर को दी गईं, ‘ नौकरियां ही नौकरियां, मिले इस नंबर पर’। लेकिन वे कुछ नहीं बोले। देवदार की बहन ‘रई ‘ का भी वही हाल। मंडी की जंजैहली घाटी में रई का ही जलवा है लेकिन स्त्रैण होने के कारण उसके पत्ते कुछ अधिक विनम्र दिखते थे। कितने ही पेड़ थे, अब कहां गए। जो गिरे नहीं उन्हें काट दिया गया। जंगल ही नहीं रहे तो पेड़ कहां रहते।
पीपल के उस दरख्त के कटने की देर थी,
आबाद फिर न हो सके चिडि़यों के घोंसले।
चिडि़या भी गायब। बंदर किसानों के बिन बुलाए मेहमान बन गए, हिमाचल के किसानों को हर साल तीन सौ करोड़ की चपत लगा रहे हैं। तेंदुए शिमला के माल रोड पर बेखौफ सैर करने निकलते हैं, सांभर शहरों में आकर मर रहे हैं…इतने प्राणियों को बेघर करता है पेड़ों का न होना।
अब पौधे रोपने की जरूरत पर बल दिया जा रहा है, वन महोत्सव होते हैं… पुरस्कार भी मिलते हैं। फिर भी जंगलों से अधिक पेड़ फाइलों के कागजों पर उगे हैं।
सड़क के किनारे छाया बांटने वाले पेड़ों को गिरते हुए देख कर डर लगता है।
पेड़ गिरने पर यातायात रुकता है तो लगता है जीवन ही रुक गया लेकिन अब पेड़ की मौत पर कोई नहीं रोता…सबको देर हो रही होती है। सड़क बाधित होने पर सरकार और प्रशासन कोसे जाते हैं। कोई कहता है , ‘ भारी भरकम पेड़ है, पुरानी खुराक खाई है…इसे कौन हिलाए’… कुछ देर बाद उनके टुकड़े किए जाते हैं, सड़क साफ हो जाती है…यातायात पुलिस की सीटियों के बीच वाहन मंजिल की ओर बढ़ने लगते हैं।
मैं सड़क किनारे पड़े पेड़ के टुकड़ों से क्षमा मांगना चाहता हूं पर आवाज रुंध जाती है…। हाय…मुझे कोई देख तो नहीं रहा…।
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