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दो दिन पहले दफ्तर आते हुए बनेर खड्ड पुल पर लोगों की भीड़ देखी..संदेह करना और नकारात्मक सोचना जब आदत बनते जाते हैं तो कई कुछ धुंधला जाता है..एक बार लगा कि कोई लाश न पड़ी हो। कोई वाहन न लुढ़का हो। ..लेकिन बस चालक और अन्य सवारियों के चेहरे पर जो निर्लिप्तता का भाव था उससे लगा कुछ बुरा नहीं हुआ है..यह तो रली विसर्जन हो रहा है। रली यानी पार्वती का एक रूप और शंकर यानी भगवान शिव का रूप। बनेर यानी बाणगंगा। जो धौलाधार से निकल कर चामुंडा मंदिर होते हुए ब्यास में मिल जाती है और अंतत: पौंग बांध में समा जाती है। यहां से आगे जो नहर राजस्थान को सींचने जाती है उसमें बाणगंगा की भूमिका भी रहती है। भूमिका ऐसी जैसा खाने में नमक। यह नमक विस्थापितों के पसीने का भी हो सकता है..खैर लौटते हैं रली और शंकर की ओर। रली पूजन के संदर्भ में हिमाचल के लोक में दो आख्यान हैं। एक यह कि कभी कोई रली नामक बच्ची थी जिसकी बेमेल शादी अपने तीन गुणा अधिक उम्र के आदमी से कर दी गई। पहले तो मर्यादाओं के कारण चुप रही लेकिन विदा होने के बाद ससुराल जाते हुए रास्ते में नदी आई तो उसने छलांग लगा दी। यह देख कर उसका पति भी पानी में कूद गया। दोनों को देख रली का भाई वास्तु भी पानी में कूद गया..फिर यह गाथा बनी। दूसरा आख्यान यह कि रली पार्वती का ही रूप थी और उन्होंने भगवान शिव को पाने के लिए एक जन्म घोर तपस्या की तब जाकर भगवान शंकर मिल पाए। कालांतर में प्रचलन हो गया कि जिस युवती को सुंदर और सुयोग्य वर चाहिए हो, वह रली-शंकर का पूजन करे..ईश्वर कृपा से सब ठीक होगा। दोनों में से कोई भी आख्यान चुन लें रली से जुड़ी कथा का अंत उसकी मूर्ति विसर्जित करने से ही होता है। विसर्जन यूं ही नहीं हो जाता। गांव के दो परिवार अपनी-अपनी जिम्मेदारी बांट लेते हैं। एक वह जिसके यहां कोई किशोरी या युवती हो और दूसरा कोई भी। जिसके घर रली का पूजन होना है उसे रली का कन्यादान भी करना है, उसके घर बारात भी आएगी और वह मेहमानों का सेवा पानी भी करेगा। रली कैसे बनती है..बस लकड़ी के दो पुतले बनाओ, मुंह पर चावल रख दो तो दांत बन गए और सिर में कौडि़यां रख दी तो वह रली हो गई। संक्रांति के दिन फिर आती थी रली के विर्सजन की बारी..विसर्जन कहें या विदाई..बड़ा कष्टकारी। लड़कियां और आम तौर पर संवेदनहीन समझे जाते लड़के ऐसे रोते थे मानो बहन विदा हो रही है..। लड़कियां तो पूरा विलाप करती। संवेदनाओं का सैलाब इतना कि ग्लिसरीन की जरूरत ही नहीं। पुतलों से लिपट कर रोना..करीने से लगाई गई चूडि़यां.. लाल रंग के रिबन से अटे पुतले के हाथ..पीतल के छल्ले..मेले में मिलने वाली लिपस्टिक..दहेज के कपड़े..और लीजिए जयजयकारे के बीच रली विसर्जित हो गई। इसके बाद भगवान शंकर विसर्जित हो गए। ऐसा मेला कि लोग जलेबियां भी खा रहे हैं और रो भी रहे हैं..’हमारी रली चली गई’। हिमाचल के एक दिवंगत शायर डा. प्रेम भारद्वाज की पहाड़ी गज्ल का शेर याद आता है: कितणा था नीर रुढ़दा रलियां रढ़ादेयां हुण हाख भी नी झुकदी माहणू मकादेयां हिंदी में इसका अनुवाद (बह्र और मीटर से हिला हुआ) यूं होगा : कितना था नीर बहता रलियां बहाते वक्त अब आंख भी नहीं झुकती कत्ल करते वक्त रली! अब किसके पास वक्त है तुम्हें पंद्रह दिन पास रखने और पूजने का? कितने लोग रोते हैं अब? घर लौट कर एक भी बार लगता है कि कुछ नदी या खड्ड में ही छोड़ आए है? कोई सोचता है कि जिस तरह खड्डें सूख रही हैं..रली और शंकर कहां प्रवाहित किए जाएंगे? कुछ ऐसी रलियां हैं जिन्हें पेट से ही बाहर आने का हुक्म नहीं है। हे शंकर भगवान! उन्हें भी बचाना और एक अनुरोध है जिसे मानना..कृपया सबको संवेदना का प्रसाद देना।
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