ग़ज़ल
जैसा देखोगे मुझे वैसा दिखाई दूंगा
हां मैं मुजरिम न सही फिर भी सफाई दूंगा
मैं हूं मिट्टी का, है मिट्टी से मोहब्बत लेकिन
कब ये सोचा था तुझे महल हवाई दूंगा
खुद से मिलने की अगर निकलेगी सूरत कोई
अपने हाथों में वही दर्द कमाई दूंगा
चाहता हूं मैं कि छोटे हों बारीक हों दुख
मेरे मौला ये रहा कौल, पिसाई दूंगा
कुछ यही तन से जुदा टुकड़े को करना है मियां
शौक से बच्ची को पालूंगा, विदाई दूंगा
लोग ‘नवनीत’ बहुत गौर से कब सुनते हैं
अबके खामोश रहूंगा तो सुनाई दूंगा
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