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दो.
सालों कटती रही
भीतर से छँटती रही
उगाती रही अपने ऊपर
घास , झाड़ियाँ पत्ते…
नाम मिला सुरंग
काम इंजिन का इन्तज़ार।
अपने भीतर दुनिया लादे
कहीं और पहुँचने की
जल्दी में हड़बड़ाता जो गुज़रा
उसे इंजिन कहते हैं.
तीन.
आपकी ऐनक़ के
शीशे नहीं
नफ़ीस कापी के पन्ने हैं ।
ज़रूर लिखेगा बादल कुछ इन पर
बालों पर उँडेलेगा
कंघा पुकारती नमी ।
ख़ास सवारी हों आप
बड़े अधिकारी हों आप
क्या सबक़ सिखाओगे
इस बादल को
जो बिना इजाज़त टहल रहा है
चार.
पहाड़ के हैं कई हिस्से
जिन पर नहीं पहुँची सड़क
फ़र्स्ट एड का सही मतलब
छींटे हैं पानी के ।
कितना सुरीला गाते हैं
छिले हुए कंधे
पानी रे पानी… तेरा रंग कैसा
छाले रोते हैं हाथ
कुल्हाड़ी और हाथों की बातचीत में
तुम वाह कहते हो
मैं आह सुनता हूँ।
पाँच.
इंजिन से लेकर
गार्ड के कूपे तक
बैठी हैं कई कवितायें
कुछ अगड़ी
कुछ पिछड़ी ।
गाड़ी में सब बराबर हैं
यूँ महल में भी होती है कविता
तब शिकायत करते वक्त
बैठ जाता है उसका गला
बदबू है या नहीं
वह नहीं जानती
क्योंकि उसे ज़ुकाम हो जाता है।
इधर दम ख़ुश्क़ करवाती चढ़ाई है
गंवई कविता जैसे भट्टी में
तपकर आई है ।
खीसे में बर्गर की जगह स्यूल के लड्डू
और खाँसी के लिए भुनी हुई हरड़ लेकर
सोती, हाँफती पर जीती कविता
जैसे कहती हो
कि गणतंत्र दिवस पर
किसी भी लालकिले से
ऊँचा होता है
कोई भी ऊबड़-खाबड़ पहाड़ ।
अंतिम
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