भाव संसार
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ग़ज़ल
ख़्वाबों के लिए हैं न किताबों के लिए हैं
हम रोज़-ए-अज़ल से ही अज़ाबों के लिए हैं
चलते भी रहें और न मंजि़ल नजर आए
हम अपने ही अंदर के सराबों के लिए हैं
संसद में जुटे लोग सवालों की तरह हैं
खेतों में जुटे लोग जवाबों के लिए हैं
बाजार ने तहज़ीब को निगला है कुछ ऐसे
चाय की दुकानें भी शराबों के लिए हैं
क्या जाने कहां कौन सी सूरत नज़र आए
इस दिल के कई चेहरे नकाबों के लिए हैं
खुशबू ही कहां, जि़क्र भी गुम हो गया तेरा
सब याद के पिंजर तो उकाबों के लिए हैं
अब आ गया रास हमको भी सन्नाटे में जीना
हम याद के वीरान ख़राबों के लिए हैं
अज़ाब: भगवान की ओर से मिलने वाला दंड, रोज़-ए-अज़ल : पहला दिन, ख़राबों
: खंडहरों, सराबों : रेगिस्तानों
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